Telangana TSBIE TS Inter 1st Year Hindi Study Material उपवाचक 5th Lesson खेलो तो ऐसा खेलो Textbook Questions and Answers.
TS Inter 1st Year Hindi उपवाचक 5th Lesson खेलो तो ऐसा खेलो
अभ्यास
अ. निम्न लिखित प्रश्नों के उत्तर तीन चार वाक्यों में दीजिए :
प्रश्न 1.
ध्यानचंद का संक्षिप्त जीवन परिचय लिखिए ?
उत्तर:
हाँकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद सिंह को कौन नहीं जानता है । उनका जन्म 29 अगस्त 1905 को इलाहाब्द में हुआ था । वह भारतीय फील्ड हाँकी के भारत एंव विश्व हाँकी के भुतपुर्व खिलाड़ी व कप्तान थे । उन्हें क्षेत्र में सबसे बेहतरीन खिलाडियों में शुमार किया जाता है । वे तीन बार ओलम्पिक के स्वर्ण पदक जीतनेवाली भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहे हैं ।
इनमें मे 1928 का एम्सटर्डम ओलोम्पिक, 1932 का लॉस एंजेल्स ओलम्पिक और 1936 का बर्लिन ओलम्पिक शामिल है । 3 दिसंबर 1979 को जब उन्होंने दुनिया से विदा ली तो उनके पार्थिव शरीर पर दो हाँकी स्टिक क्रॉस बनाकर रखी गई। ध्यानचंद ने मैदान पर जो ‘जादू’ दिखाए, वे इतिहास में दर्ज है ।
प्रश्न 2.
ध्यानचंद को ‘हाकी का जादूगर’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
26 मई 1928 को ध्यानचंद समेत कई खिलाड़ियों की तबीयत खराब थी। लेकिन उनके हौंसलों में किसी तरह की कमी नही थी । वो टीम वर्ल्ड चैम्पियन बन चुकी थी, जो उधार लेकर ओलंपिक खेलने आई थी । बर्लिन ओलंपिक में लोग मेरे हाँकी खेलने के ढंग से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे हाँकी का जादूगर कहना शुरु कर दिया । इसी ओलंपिक के बाद पहली बार ध्यानचंद के नाम के साथ ‘जादुगर’ शब्द जोडा गया ।
खेलो तो ऐसा खेलो Summary in Hindi
लेखक परिचय
योगराज थानी की गिनती देश के महानतम खेल पत्रकारों में की जाती है । उन्हें खेल पत्रकारिता और खेल साहित्य की विकास यात्रा में अपना विशिष्ट योगदान है । उनका जन्म 1931 में हुआ । बाल साहित्य लेखक के रूप में 1953 से 1964 के बीच अपनी पहचान बनाए । वह लंबे समय तक विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं, आकाशवाणी और दूरदर्शन से जुड़े रहे । उनका निधन सन् 2009 में हुआ ।
थानी ने ‘आहार व स्वास्थ्य शिक्षा’, ‘अंतर्राष्ट्रीय खेल और भारत’, ‘एशियाई खेल’, ‘एथलेटिक्स’, ‘बैडमिंटन’, ‘भारत के रत्न खिलाडी’, ‘हाँकी’, ‘लोकप्रिय खेलों के नियम’, ‘शारीरिक शिक्षा और खेल मनो वैज्ञानिक’, ‘स्वास्थ्य शिक्षा और रोग’, ‘पतंगबाज़ी सीखें’, ‘विकलांगों केलिए शारीरिक शिक्षा एंव खेल कूद’, ‘टेबल टेनिस’ जैसी बेश कीमती खेल साहित्य की रचना की।
इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी में भी रचनाएँ की । थानी की विशिष्ट शैली और उनकी सशक्त भावाभिव्यक्ति ने उन्हें हिंदी खेल पत्रकारिता का एक मूर्धन्य ङस्ताक्षर बना दिया । उनकी इन पुस्तकों की सफलता का रहस्य विश्व प्रसिद्ध खिलाड़ियों से उनकी मित्रता थी । उन्होंने कुश्ती से जुड़ी अनेक पुस्तकें लिखी और इस खेल के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दिया । योगराज थानी की पुस्तकें किसी संजीविनी बूटी से कम नहीं है ।
योगराज थानी की गिनती देश के महानतम खेल पत्रकारों में की जाती है। उन्हें खेल पत्रकारिता और खेल साहित्य विकास यात्रा में अपना विशिष्ट योगदान है। थानी की विशिष्ट शैली और उनकी सशक्त भावाभिव्यक्ति ने उन्हें हिंदी खेल पत्रकारिता का एक मूर्धन्य हस्ताक्षर बना दिया । योगराज थानी की पुस्तकें किसी संजीविनी बूटी से कम नहीं है ।
प्रस्तुत पाठ में लेखक ने भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के आत्मकथ्य संस्मरणों का सुंदर वर्णन किया है ।
सारांश
ध्यानचंद का जन्म 1905 में प्रयाग के एक साधारण राजपुत परिवार में हुआ। बाद में (झांसी आकर बस गए) ध्यानचंद के पिता सेना में थे, जिस वजह से बार-बार ट्रांसफर के कारण वह छठी क्लास तक ही पढ पाए। वर्ष 1922 में वह 16 की उम्र में ही सेना में भर्ती हो गए । सेना में लोगों को खेलते देख उनके मन में भी खेलने की ख्वाहिश जगी । सूबेदार बाले तिवारी ने उन्हे खेल की बारीकियां सिखाई और फिर एक दिन वह देश के बेस्ट हाँकी खिलाड़ी बन गए ।
ध्यानचंद खेल के मैदान के बारे में इस प्रकार कह रहा है कि खेल के मैदान में धक्का-मुक्की और मारधाड़ की घटनाएँ होती रहती हैं। खेल में तो यह सब चलता ही है। जिन दिनों हम खेला करते थे, उन दिनों भी यह सब चलता था। अपने जीवन की एक दिलचस्प घटना सुना रहे है ! सन् 1933 की बात है । उन दिनों मै पंजाब रेजीमेंट की ओर से खेला करता था । एक दिन पंजाब रेजीमेंट और स्पेंसर एंड माइनर्स टीम के बीच मुकाबला हो रहा था। माइनर्स टीम के खिलाड़ी मुझसे गेंद छीनने की कोशिश करते, लेकिन उन की हर कोशिश बेकार जाती । इतने में एक खिलाड़ी ने गुस्से में आकर हाँकी मेरे सिर पर दे मारी।
मुझे मैदान से बाहर ले जाया गया । थोडी देर बाद मैं पट्टी बँधवाकर फिर मैदान में आ पहुँचा। आते ही मैं ने उस खिलाडी की पीठ पर हाथ रख कर कहा, “तुम चिंता मत करो, मैं इसका बदला ज़रूर लूँगा ।” मेरे इतना कहते ही वह खिलाडी एकदम घबरा गया। अब वह हर समय मुझे ही देखता रहता कि मैं कब उसके सिर पर हाँकी मारने वाला हूँ । उस खिलाड़ी का ध्यान खेल पर न रहकर, मुझ पर है।
मैं ने एक के बाद एक आनन- फानन में छह गोल कर लिए । खेल खत्म होने के बाद मैं ने फिर उस खिलाड़ी की पीठ थपथपाई और कहा, “दोस्त खेल में इतना गुस्सा अच्छा नहीं लगता। मैं ने तो अपना बदला ले ही लिया है। अगर तुम मुझे हाँकी न मारते तो मैं तुम्हे शायद दो ही गोलों से हराता ” । वह खिलाड़ी सचमुच बड़ा शर्मिंदा हुआ । सच मानो बुरा काम करनेवाला आदमी हर समय डरता रहता है कि उसके साथ भी बुराई की जाएगी ।
जहाँ भी जाता हूँ छोटे-छोटे बच्चे अक्सर मुझ घेर लेते है और मुझसे मेरी सफलता का राज़ जानना चाहते हैं । मेरे पास सफलता का कोई गुरुमंत्र तो है नहीं । हर किसी से यही कहता हूँ कि लगन, साधना और खेल – भावना यही सफलता के सबसे बड़े मंत्र है। 1936 ई में बर्लिन ओलंपिक में मुझे टीम का कप्तान बनाया गया । उस समय मैं सेना में लांस नायक था। मेरे हाँकी खेलने के ढंग से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे हाँकी का जादुगर कहना शुरु कर दिया।
मेरी तो हमेशा यह कोशिश रहती कि मैं गेंद को गोल के पास ले जाकर अपने किसी साथी खिलाडी को दे दूँ ताकि उसे गोल करने का श्रेय मिल जाए । अपनी उसी खेल भावना के कारण मैंने जर्मनी के तानाशाह हिटलर तक का दिल जीत लिया था। जब हिटलर जी को यह मालूम हुआ कि मैं भारतीय सेना में लांस नायक हूँ तो अपने एक अधिकारी से कहा कि उससे कहो कि वह जर्मनी आ जाए, मै उसे मार्शल बना दूँगा |
बर्लिन में ओलंपिक में हमें स्वर्ण पदक तो मिला ही, लेकिन हिटलर मे अपनी ओर से भी मुझे एक पदक दिया था । इससे बड़ा गौरव किसी खिलाड़ी केलिए और क्या हो सकता है।
अब मैं आपको एक दूसरा संस्मरण सुनाता हूँ। 15 अगस्त, 1936 का दिन स्मरणीय था । सुबह – सुबह हम लोग ड्रेसिंग रूम में एकत्र हुए। अभ्यास मैच की पराजय हर एक के दिल में दहरात बनी हुई थी। फाइनल 14 अगस्त को खेला जाने वाला था, लेकिन उस दिन इतनी बारिश हुई कि मैदान में पानी भर गया । तय हुआ कि फाइनल 15 अगस्त की सुबह खेला जाएगा। टीम के मेनेजर पंकज गुप्ता भी- बहुत चिंतित थे।
टीम का हौंसला बढ़ाने केलिए एक युक्ति गुप्ता जी ने सूझी । सहसा उन्होंने उन खिलाडियों के सामने तिरंगा झंडा दिया और मानो कह दिया, “इसकी लाज़ तुम्हारे हाथ में है” । श्रद्धा से सभी ने उस तिरंगे को शाही सलामी दी और मैदान में उसकी लाजरखने के लिए वीर सैनिकों की तरह उतर पड़े। भारतीय इस खेल की विजयी हुए । इस दिन सचमुच तिरंगे की लाज़ रह गई । उस समय कौन जानता था कि 15 अगस्त ही भारत का स्वतंत्रता दिवस बनेगा ।
विशेषताएँ :
1) 1968 में भारतीय ओलंपिक टीम के कप्तान रहे गुरुबख्श सिंह ने बताया कि 1959 में भी ध्यानचंद 54 साल के हो चले थे भारतीय हाँकी टीम का कोई भी खिलाड़ी बुली में उनसे गेंद छीन नहीं सकता था ।
2) बर्लिन के हाँकी स्टेडियम में उस दिन 40,000 लोग फाइनल देखने केलिए मौजूद थे। देखने वालों में बड़ौदा के महाराजा और भोपल की बेगम के साथ-साथ जर्मन नेत्रुत्व के चोटी के लोग मौजुद थे । ताजुब ये था कि जर्मन खिलाडियों ने भारत की तरह छोटे-छोटे पासों से खेलने की तकनीक अपना रखी थी । हाफ टाइम तक भारत सिर्फ एक गोल से आगे था, इसके बाद ध्यानचंद ने अपने स्पाइक वाले जूते और मोज़े उतारे और नंगे पाँव खेलने लगे । इसके बात तो गोलों की झडी लग गई।
3) ध्यानचंद अपनी जीवन की बहुत सी रोचक घटनाएँ के बारे में हमें बताए ।
खेलो तो ऐसा खेलो Summary in Telugu
సారాంశము
‘खेलो तो ऐसा खेलो’ అను ఈ పాఠ్యాంశమును యోగరాజ్ థానీ గారు రచించినది. ఈ పాఠ్యాంశమునందు వారు జాదూగర్ ధ్యాన్ చంద్ యొక్క ఆత్మకథలోని కొన్ని ముఖ్యమైన విషయాలను తెలియచేశారు. ధ్యానంద్ గారు ఒక సాధారణ రాజపూత్ కుటుంబంలో 1905న ప్రయాగలో జన్మించారు. తరువాత ఝాన్సీ వచ్చి ఉన్నారు. ధ్యాన్ తండ్రి ఆంగ్లేయ సైన్యంలో పనిచేసేవాడు. దాని కారణంగా ట్రాన్స్ఫర్ అవుతుండేది.
ధ్యాన్ చంద్ 6వ తరగతి వరకు మాత్రమే చదివియున్నారు. 1922 సంవత్సరం ధ్యాన్ చంద్ కూడా సైన్యంలో భర్తీ అయ్యాడు. అప్పుడు అతని వయస్సు 16 సం॥. సైన్యంలో అందరూ ఆడటం చూసి తన మనసులో కూడా ఆడుకోవాలని కోరిక కలిగింది. సుబేదార్ బాలే తివారి గారు హాకీ యందు తనకు మెళుకువలు నేర్పించారు. వారు నేర్పించిన మెళుకువలతో నేను ఒక సమయంలో గొప్ప హాకీ క్రీడాకారుడుగా పేరుతెచ్చుకున్నాను అని ధ్యాన్ చంద్ చెప్పేవారు. ధ్యాన్ చంద్ తన జీవితంలో జరిగిన కొన్ని విషయాలను మనతో చెప్పాలనుకున్నారు. అందులో మొదటిది. ఒక సారి నేను మైదానంలో ఆడుతున్నాను. అప్పుడు నాకు చాలా చోట్ల శరీరంపై దెబ్బలు తగిలాయి. ఆటలలో ఇది సహజం.
1933 సంవత్సరం నాటి విషయం. నేను పంజాబ్ రెజిమెంట్ వైపున ఆడుతున్నాను. ఒక రోజు పంజాబ్ రెజిమెంట్ మరియు స్పెన్సర్ అండ్ మోయినర్స్ టీమ్ మధ్య పోటీ జరుగుతుంది. మోయినర్స్ టీమ్ ఆటగాళ్ళు నా నుండి బంతిని లాగే ప్రయత్నం చేస్తున్నారు. కాని వారి ప్రతి ప్రయత్నాన్ని నేను విఫలం చేశాను. ఇంతలో ఒక ఆటగాడికి కోపం వచ్చి హాకి స్టిక్తో తన తలపై కొట్టాడు. నన్ను మైదానం నుండి బయటకు తీసుకువచ్చారు.
కొద్ది సమయం తర్వాత నా తలపై కట్టు కట్టారు. నన్ను మరల స్టేడియంకి తీసుకువచ్చారు. నేను ఆటలోకి మరల వెళ్ళిపోయాను. ఏ ఆటగాడైతే నన్ను కొట్టాడో ఆ ఆటగాడి వద్దకు వెళ్ళి వీపుపై చేయి వేసి నేను ఈ విధంగా అన్నాను, నేను నీపై తప్పక ప్రతీకారం తీర్చుకుంటాను. ఆ మాట వినగానే అతను భయభ్రాంతుడైనాడు. ఆట ప్రారంభమయ్యింది ఆ ఆటగాడు నావైపు చూస్తూ ఆటను సరిగా ఆడలేకపోతున్నాడు. మా టీమ్ ఆ ఆటలో గెలిచింది. అతని వద్దకు నేను వెళ్ళి నా ప్రతీకారం ఇలా నెరవేరింది అని చెప్పాను. ఆ ఆటగాడు చాలా సిగ్గుపడ్డాడు. నిజం చెప్పాలంటే చెడు పనిచేసే వ్యక్తి ఎల్లప్పుడు భయపడుతూనే ఉంటాడు.
నేను ఎక్కడికి వెళ్ళిన చిన్న- పెద్ద ప్రతి ఒక్కరు నన్ను ఒక ప్రశ్న వేసేవారు. మీ విజయ రహాస్యం ఏమిటి మాకు చెప్పండి అని అడిగేవారు. నా వద్ద అలాంటి మంత్రమే లేదు. శ్రద్ధ, సాధన మరియు ఆటమీద అంకిత భావం ఉంటే విజయం మీ దరి చేరుతుంది అని ప్రతి ఒక్కరికి చెప్పేవాడిని. 1936లో బర్లిన్ ఒలంపిక్స్లో నన్ను టీమ్ చేశారు. ఆ సమయంలో నేను సైన్యంలో లావ్స్ నాయక్. నేను హాకీ ఆడే పద్ధతి చూసి ప్రజలు నన్ను ‘హాకీ మాంత్రికుడు’ అనే బిరుదును ఇచ్చారు.
నేను బంతిని గోల్ వద్దకు తీసుకువెళ్ళి నాతోటి ఆడే ఆటగాడికి ఇచ్చి అతనిని గోల్ చేయమని చెప్పేవాడిని. నా ఈ ఆట కారణంగా జర్మన్ నియంత అయిన హిట్లర్ మనసు నేను గెలుచుకోగలిగాను. నేను భారతీయ సైన్యంలో లాన్స్ నాయక్ అని తెలిసి, నన్ను జర్మనీ రమ్మని చెప్పారు. జర్మనీ వస్తే నన్ను ‘మార్షల్’ (సైన్యంలో గొప్ప హోదా) ఇస్తానని చెప్పారు.
బర్లిన్ ఒలంపిక్స్లో నాకు బంగారు పతకం లభించింది. కాని హిట్లర్ నాకు ఒక పతకం బహూకరించారు. ప్రత్యేకంగా హిట్లర్ లాంటి వ్యక్తులు నాకు పతకం ఇవ్వడం చాలా గర్వంగా అనిపించింది.
ఇప్పుడు నేను మరొక విషయాన్ని మీకు తెలియచేస్తాను. ఆగష్టు 15, 1936వ సంవత్సరం హాకీ ఆటగాళ్ళమైన మేము డ్రస్సింగ్ రూములో కూర్చుని ఉన్నాము. ముందురోజు జరిగిన ట్రయల్ మ్యాచ్లో ఓడిపోయాము. దానితో అందరి ముఖాలలో బాధ ఉంది. ఆగష్టు 14న ఆడవలసిన ఫైనల్ వర్షం కారణంగా ఆగిపోయింది. ఆగష్టు 15 ఉదయం ఫైనల్ మ్యాచ్ ఏర్పాటు చేశారు. టీమ్ మేనేజర్ పంకజగుప్తా చాలా దిగులుగా ఉన్నారు.
మా అందరిలో ఉత్సాహం నింపడానికి గుప్తాగారు ఒక ఉపాయం ఆలోచించారు. మా అందరి ముందు జాతీయ జెండాను ఉంచారు. దీని గౌరవం దయచేసి కాపాడండి. జెండా గౌరవం మీ చేతిలోనే ఉంది అని చెప్పారు. అందరూ శ్రద్ధతో జెండాకి వందనం చేశారు. ఒక వీర సైనికుడు దేశం కోసం ఏ విధంగా పోరాడతాడో ఆ విధంగా ఆటలో మేమంతా కృషిచేశాము. ఈ మ్యాచ్ భారతీయులైన మేము గెలిచాము. నిజంగా దేశ గౌరవాన్ని కాపాడాము. ఆగష్టు 15 మన స్వాతంత్ర దినోత్సవము అగును అని ఆ రోజున మాకు తెలియదు.